बुर्का को लेकर हमेशा से विवाद रहा है। मुस्लिम समाज इसे हमेशा अपने धर्म से जोड़ता रहा है। किसी मुस्लिम से पूछिए बुर्का क्यों ज़रूरी है? उसका जवाब होगा कि कुरान में लिखा है। अगर आप किसी मौलाना से पूछेंगे कि बुर्क़ा महिलाएँ ही क्यों पहनती हैं? तो वो पूरा तरीका बताने लग जाएगा कि किस टाइप का बुर्क़ा पहनने को कुरान में बोला गया है। इन्हें ये तक नहीं पता है कि कुरान में वास्तव में क्या कहा गया है। ऐसे लोग भले ही अपने आपको इस्लाम का प्रचारक समझते हों लेकिन उनमें बहुत ज्यादा ज्ञान की कमी ही है। इन दोनों व्यक्तियों में इस चीज़ की समानता है कि दोनों ही मुस्लिम महिला को दबाकर रखना चाहते हैं।
बुर्का एक शब्द नहीं बल्कि एक प्रतिबन्ध है। अगर आपको चित्रात्मक तरीके से प्रतिबन्ध को दिखाना हो तो आप बुर्का पहने हुए एक महिला को दिखा सकते हैं। जब पूरे विश्व में महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, उसी समय विश्व का एक बहुत बड़ा तबका बुर्के के द्वारा महिलाओं की आजादी छीनने को सही ठहराने में लगा हुआ है।
इस्लाम धर्म में कुरान को इस्लाम की एक दैवीय पुस्तक मानते हैं। इस्लाम के समर्थकों के अनुसार उनके हर प्रश्न का जवाब कुरान में दिया हुआ है। अगर पहनावे की बात की जाए तो वो भी उनके अनुसार कुरान में दिया गया है कि महिलाओं को क्या पहनना चाहिए। उनके अनुसार ये बोला जाता है कि कुरान में बोला गया है कि महिलाएँ अपने पूरे शरीर को पूरा ढकें जबकि यह बात पूरी तरह से गलत है कि ऐसा कुछ कुरान में बोला गया है। सच्चाई यह है कि कुरान में बुर्का शब्द का कहीं भी वर्णन है ही नहीं। उसमें केवल यह बोला गया है कि महिलाओं का सर ढका होना चाहिए और कपड़े शालीन होने चाहिए।
बुर्के के अगर इतिहास को लोग सही में जान लें तो उन्हें पता चल जाएगा की यह पहनावा भौगोलिक क्षेत्र की आवश्यकता के लिए उस समय की महिलाओं ने अपनाया था, जिससे उस क्षेत्र में चलने वाली रेत भरी हवाओं से बचा जा सके। उसको अगर दूसरे क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं पर जबरदस्ती लागू किया जाता है तो यह एक मानसिक प्रताड़ना कहलाती है। महिलाओं को अगर इस्लाम के समर्थक पुरुष उनको उनके मन से अगर कपड़े तक पहनने नहीं दे रहे हैं तो मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है|
बुर्का का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है। बुर्क़ा मुस्लिम संस्कृति का एक हिस्सा है, लेकिन इस्लाम का एक हिस्सा नहीं है। जहाँ पर इस्लाम का जन्म हुआ, उस हिस्से की औरतों ने कभी भी पर्दा नहीं पहना था। हजरत मुहम्मद ने कभी भी पर्दा करने के निर्देश नहीं दिए थे। धर्मग्रन्थों में दिए गए विचारों के साथ ही, विद्वानों का ये मत है कि इस्लाम में, सिर ढकने की अनिवार्यता नहीं होनी चाहिए क्योंकि इसका सीधा संबंध क़ुराम से है। सिर को ढकने की प्रथा का प्रारंभ अरब में इस्लाम के आगमन से पूर्व कुछ अन्य देशों के साथ संपर्क के चलते किया गया था, जहाँ पर हिजाब एक प्रकार की सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक था। आवरण में या बुर्के में रहना- इसे अरब में पैगम्बर मोहम्मद द्वारा प्रचलित नहीं किया गया था वरन् ये वहाँ पर पहले से मौजूद था।