सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस अभय एस ओका ने कहा कि देश के हर नागरिक को अदालती फैसलों की आलोचना का अधिकार है लेकिन यह आलोचना रचनात्मक, बेहतर अध्ययन पर आधारित और पूरी जिम्मेदारी की भावना से की जानी चाहिए। उन्होंने न्यायपालिका के बारे में सोशल मीडिया पर शर्मिंदगी भरी सामग्री पोस्ट करने से बचने का आग्रह करते हुए कहा कि तथाकथित विशेषज्ञों को अदालतों में कोई फैसला सुनाए जाने के कुछ ही घंटों में बहस शुरू करने की जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए।
गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में रविवार को ‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सामने समकालीन चुनौतियां’ विषय पर एक व्याख्यान में जस्टिस ओका ने कहा, जज के रूप में मैं हमेशा से यह मानता हूं कि हम आम आदमी के प्रति जवाबदेह हैं। हर बार जब मैं छात्रों या वकीलों को संबोधित करता हूं, मैं यह कहता हूं कि भारत के हर नागरिक को अदालतों में सुनाए गए फैसलों की आलोचना का अधिकार है। हालांकि यह आलोचना सकारात्मक होनी चाहिए।
कोई व्यक्ति अचानक से उठकर खड़ा हो और कहे, कोर्ट का फैसला गलत है और मैं इससे सहमत नहीं हूं तो ऐसा नहीं हो सकता। यदि आप फैसले की आलोचना करना चाहते हैं तो आपको यह बताना चाहिए कि हां, ये आधार हैं जिनपर जज ने गलती की है या जज ने जो ये बिंदू दर्ज किए हैं वह सुस्थापित कानूनों के उलट हैं। आलोचना को पूरी तरह अध्ययन पर आधारित होना चाहिए।
पहले फैसला पढ़ें तब बताएं जज ने कहां गलती की
सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा, यदि आप फैसले की आलोचना करना चाहते हैं तो आपको अधिकार है लेकिन कृपया पहले फैसले को सावधानी पूर्वक पढ़ें और तब बताएं कि क्यों फैसला गलत है। उन्होंने कहा, फैसलों की आलोचना न्यायपालिका की आलोचना के बराबर है क्योंकि जज आत्म संयम का पालन करते हैं। उन्होंने कहा, हम राजनीतिक वर्ग नहीं हैं जो मीडिया के सामने जाकर प्रतिक्रिया दें कि यह आलोचना सही नहीं है। हमसे ऐसा करने की उम्मीद भी नहीं की जाती। हम सांविधानिक पद पर बैठे हैं।
जजों ने अतीत में स्वीकारी हैं अपनी गलतियां
जस्टिस ओका ने कहा, आम आदमी के आलोचना के अधिकार का संरक्षण करते हुए मैं खासकर कानून के छात्रों से यह कहता हूं कि यह आलोचना जिम्मेदारी की पूरी भावना के साथ की जानी चाहिए। जस्टिस ओका ने कहा, अतीत में न्यायपालिका ने अपनी गलतियों को बार-बार स्वीकार किया है। जब भी जजों को लगता है कि कुछ गलत हो गया है तो वो प्रतिक्रिया देते हैं और गलती सुधारने वाले कदम उठाते हैं।
न्यायिक आजादी की रक्षा करना बार, जनता सबकी जिम्मेदारी
जस्टिस ओका ने कहा, स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान का मूल ढांचा है जिसका उत्साहपूर्वक संरक्षण किया जाना चाहिए। जजों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्यायपालिका प्रचंड रूप से स्वतंत्र रहे क्योंकि उन्होंने सांविधानिक कानूनों को लागू करने और पक्षपात या भय के बिना न्याय प्रदान करने की शपथ ली है। लेकिन न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना बार की भी जिम्मेदारी है। लेकिन यह जिम्मेदारी बार तक ही सीमित नहीं है। यदि हमारा समाज, हमारे नागरिक पूर्णत स्वतंत्र न्यायपालिका चाहते हैं तो यह देश की आम जनता, हर शिक्षित और सही सोच वाले व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि जब भी न्यायपालिका की आजादी पर हमला हो तो वह न्यायपालिका के साथ खड़ा हो। न्यायपालिका की आजादी में किसी भी दखलंदाजी का जवाब सिर्फ प्रचंड रूप से स्वतंत्र बार ही हो सकता है।
बार के प्रतिरोध ने मुख्य न्यायाधीश को पद छोड़ने के लिए मजबूर किया
जस्टिस ओका ने अतीत में न्यायपालिका की आजादी पर हुए हमलों और उसमें बार के प्रतिरोध का जिक्र भी किया। उन्होंने कहा, 1995 में बॉम्बे बार एसोसिएशन ने उस समय के बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को लेकर गंभीर चिंता जताई और इस बारे में प्रस्ताव पारित किया। अंतत: चीफ जस्टिस को इस्तीफा देना पड़ा।
केशवानंद भारती फैसले ने लोकतंत्र और न्यायपालिका की आजादी सुनिश्चित की
जस्टिस ओका ने 1973 के केशवानंद भारती फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि इसके जरिये सुप्रीम कोर्ट ने स्थापित किया कि संसद संविधान के मूल ढांचे में बदलाव नहीं कर सकती। इस एक फैसले में देश में लोकतंत्र और न्यायपालिका की आजादी को बचा लिया।
जजों की वरिष्ठता की अनदेखी पर बार ने उठाए सवाल
सुप्रीम कोर्ट जज ने कहा, जब भी सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस के पद पर नियुक्ति में वरिष्ठता की स्थापित परंपरा की अनदेखी करनी चाहिए, तो जजों और बार एसोसिएशनों ने इसका कड़ा विरोध किया। वरिष्ठता की अनदेखी बेहद बुरी बात है। ऐसा कभी नहीं होना चाहिए। इससे न्यायपालिका की आजादी बुरी तरह प्रभावित होती है।
संबंधित वीडियो