पिछले सात सौ सालों से महाराष्ट्र के पंढरपुर में आषाढ़ महीने की शुक्ल एकादशी के पावन अवसर पर महायात्रा का आयोजन होता आ रहा है। इसे वैष्णवजनों का कुम्भ कहा जाता है। महाराष्ट्र में भीमा नदी के तट पर बसा पंढरपुर शोलापुर जिले का हिस्सा है । अषाढ़ माह में देश के कोने-कोने से यहाँ लोग पताका-डिंडी लेकर पदयात्रा करते हुए पहुँचते हैं। इस यात्रा के लिये अधिकांश लोग अलंडी में एकत्र होते हैं और पूना तथा जजूरी होते हुए पंढरपुर जाते हैं। इन्हें ‘ज्ञानदेव माउली की डिंडी’ या ‘दिंडी’ कहा जाता है।
इस पद यात्रा का महत्व समझते हुए सुदर्शन न्यूज़ के प्रधान संपादक सुरेश चव्हाणके ने 22 दिन की इस यात्रा में 5 दिन शामिल होने का निर्णय किया है। उन्होंने इस बात की जानकारी देते हुए ट्वीट किया, “आज से महाराष्ट्र यात्रा पर रहूँगा। 17 से 21 माता-पिता श्री जी के सानिध्य में शिर्डी। 22 से आळंदी-पंढरपुर दिंडी (पद यात्रा) में। आप भी पालखी में साथ चल सकते हैं।”
पंढरपुर यात्रा से पहले महाराष्ट्र के कुछ संतों ने लगभग 1000 साल पहले पालकी प्रथा प्रारंभ की थी । उनके अनुयायियों को ‘वारकारी’ कहते हैं, जिन्होंने इस प्रथा को अभी तक जीवित रखा है । वारकारियों का एक संगठित दल यात्रा के दौरान नृत्य और कीर्तन करते हुए महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत तुकाराम की कीर्ति का गुणगान करता है । यह कीर्तन दल अलंडी से देहु होते हुए तीर्थनगरी पंढरपुर तक पैदल चलता है । पंढरपुर की यात्रा जून माह में शुरू होती है और 22 दिन तक चलती है।